उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सर्वप्रथम श्रीवैष्णव धर्म प्रचार-प्रसार हेतु स्वामी जी ने अखण्ड ज्ञान-यज्ञ का अघोषित सज्र्ल्प लिया, जिसके अन्तर्गत प्रतिदिन कहीं न कहीं श्रीमद्भागवत, वाल्मीकिरामायण, हरिवंशमहापुराण, विष्णुपुराण आदि सद्ग्रन्थों का उपदेश स्वामी जी द्वारा दिया जा रहा है तथा वैदिक कर्मों के उपदेश हेतु यज्ञादि कर्मों को भी आयोजित किया जाता है।
संस्कृत के प्रचार-प्रसार करने में स्वामी जी का मुख्य उद्देश्य वैदिक धर्म के भाव से जनमानस को ओत-प्रोत करना रहा है, अत: आपने निम्नलिखित रूप से उसे मूत्र्तरूप दिया-
संस्था की उद्देश्यों की पूर्ति हेतु स्वमी जी ने संस्कृत उच्च विद्यालय के उपरान्त अनन्तश्री स्वामी पराज्र्ुशाचार्य संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की, जिसे १९९० में भारत सरकार ने आदर्श योजना के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया।
वर्णाश्रम की व्यवस्था धर्मव्यवस्था कही जाती है तथा यह हिन्दूधर्म का आधार है। इसमें समाज के अर्थव्यवस्था से लेकर आध्यात्मिक प्रगति के सर्वांगीण विकास के रहस्य समाहित हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय के तेरहवें श्लोक में स्वयं कहा है : “चातुवण्र्यं मयासृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।” समय एवं परिस्थिति वश शिक्षा की कमी के कारण समाज कुरूतियों का घर हो गया। केवल जन्ममात्र से अपने को ब्राह्मण मानने वाले अपढ़ रहते हुए भी अपने को पुजवाते रहे। ब्राह्मणवाद ठगी का पर्याय हो गया। यज्ञादि में पशुओं की बली शास्त्र विरूद्ध होने पर भी ब्राह्मणों ने इसे जीभतुष्टि का साधन बना लिया था। जयदेव के दशावतार की पंक्ति “निन्दसि यज्ञ विधेरहह श्रुतिजातम । सदय हृदय दर्शित पशुघातम।। केशव धृतबुद्ध शरीर जय जगदीश हरे ।।” इसी कुरीति का स्मरण कराते हैं। फलस्वरूप आत्मगौरव वाले बाभन. त्यागी. सरयूपारीण तथा भूमिहार आदि ब्राह्मण अपने को पूजा एवं ठगी से अलग कर कृषि आदि कार्य में लग गये। स्वामीसहजानन्द सरस्वति बिहार तथा उत्तरप्रदेश में इस तरह के ब्राह्मणवाद के विरोध में मुखर हो चुके थे। बाभन भूमिहार ब्राह्मण इनके साथ हुए तथा जन्मना अपढ़ ब्राह्मणों के विरोध में आन्दोलन तीब्रतर हो गया।
श्रीस्वामी पराङ्कुशाचार्य जी ने भी जनमानस को झकझोरा तथा उन्हें शिक्षित होने के लिये जागृत करने लगे। संस्कृत विद्यालयों की स्थापना से लोग शिक्षित होकर जागृत होने लगे तथा अपने घर गॉंव में अपढ़ बा्रह्मणों का बहिष्कार करने लगे। शास्त्रीय विधि से कर्मकाण्ड संपन्न कराने हेतु श्रीसहजानन्द सरस्वति प्रणीत ‘कर्मकलाप’ पुस्तक के अतिरिक्त श्रीपराङ्कुशाचार्य ने भी ‘ब्रह्ममेधसंस्कार नारायणवलि’ तथा अन्य पद्धति पुस्तकों का प्रणयन किया। शास्त्रीय रीति से सुलभ होने के कारण श्रीस्वामी जी की पद्धति से कर्मकाण्ड संपन्न होने लगे तथा पाखंडी ब्राह्मणों का बहिष्कार हुआ। पाखंडियों के शास्त्रिय अनभिज्ञता के कुछ अनोखे उदाहरण निम्नवत हैं।